Friday, April 13, 2012

रघुवीर सहाय की स्नेहिल उष्मा : सुधेंदु पटेल



वे उतरती सर्दियों के उजले दिन थे जब इलाहाबाद में मैंने पहली बार सहायजी को देखा-सुना और उनसे उनकी एक टिप्पणी पर उलझने की हिमाकत की थी। उस दिन मैं बहस की मुद्रा में जितना उद्दंड हुआ था, वे उतनी ही मात्रा में संयत बने रहे थे। मुझमें उनकी पूरी बात सुनने का धैर्य तक न था और वे थे। कि मेरी बात जिज्ञासु की तरह सुनते, फिर सहजता से अपनी बात समझाते रहे थे लेकिन मैं अपनी अज्ञानता से तर्क-कुतर्क के साथ हठी ही बना रहा था। और यही वह बिंदु था, जहां हम एक दूसरे को भा गये थे। दिल्ली की चकाचैंध से बहुत दूर राजस्थान के एक पिछड़े आदिवासी अंचल के सर्वव्यापी अंधकार में डूबे गांव में जब सहायजी के निधन का समाचार सुना तो अलाव की लहकती आंच के बावजूद आंखों के आगे आस-पास का अंधेरा एकबारगी इतना घना हो उठा था कि कुछ भी सहसा न सूझा। कोहरे की एक परत दिमाग में आंखों के जरिये ऐसे पसरी कि पानी-पानी हो गया।


एक बार फिर मैं पितृहीन हो गया था। इस बार भी दिसंबर की दगाबाजी और दाह संस्कार में शामिल न होने की पीड़ा से तभी उबर पाया, जब यह बात दिमाग में आयी कि यदि किसी जुगत से सहायजी को यह बता पाता कि मैं उस दिन दाह संस्कार में इसलिए नहीं आ पाया, क्योंकि मैं पानी और रोशनी से वंचित लोगों के बीच उनकी पीड़ा की पड़ताल के लिए गया हुआ था। वे सुनकर हमेशा की तरह वहां के अनुभव से जुड़ी-छोटी-से-छोटी समझ पड़ने वाली बातें पूछते। एक जिज्ञासु की तरह अनुभव में साझेदारी के लिए न केवल आकुल होते, अपितु तत्काल अनुभवों को लिखकर दर्ज करने की स्नेहिल हिदायत भी देते, जिसे टाला नहीं जा सकता था। मेरे संतोष के लिए अब अनुभवजन्य कल्पना ही शेष बच रही है।
मैं भूल नहीं पाता हूं। बरसों हुए ‘आज’ अखबार में पलामू के बारे में छपी एक छोटी से खबर से इस कदर उद्वेलित हुआ था कि रहा नहीं गया, उसी शाम अपने एक मित्र रामकृष्ण साहा के साथ पलामू की ओर निकल गया। मुगलसराय से प्रारंभ हुई रेल के अंधेरे डिब्बों की यातनादायक सफर ने पलामू के जंगलों की  आपकी यात्रा का संक्षिप्त परिचय मिला, उसी से मन व्याकुल हो उठा है। हिंदुस्तान की जिंदगी का अधिकार सिमट कर कितने कम हाथों में आ गया है, यह दिल्ली में रोज देखता हूं, और यहीं लोग मानवता की बात करते हैं मेरे जैसे जाने-कितने मध्यवर्गीय लेखक इसी अधिकारी वर्ग के मंडल के चक्र के अंश हैंः वे भी मानवीय अनुभूति और नियति और संत्रास की बात करते हैं। पर यह जानना कि वे कितने अधूरे आदमी हैंः, एक ऐसा संत्रास है, जिसे बाकी आदमी को जाने बिना जाना नहीं जा सकता। उसे बिना जाने किस संत्रास की बात आज का कवि बहुधा करता है, वह वास्तव में सत्ता और शक्ति के प्रभामंडल में अपनी दयनीय स्थिति जानने को पीड़ा है, बल्कि पीड़ा ही नहीं, निरी ग्लानि है-पीड़ा हो, तो शायद वह अपने उस प्रतिरूप को भी जानना चाहे, जो हिंदुस्तान की जिंदगी से कटे हुए लोगों में मिलेगा-जो आप अभी देख कर आ रहे हैं।
आपने जो कुछ भी देखा, सुना, समझा और आपके भीतर जो कुछ भी हुआ। शब्दश दिमान के माध्यम से हजारों अपने-जैसे मध्यवर्गीय कूपमंडूकों को पहुंचा सकूं, तो कृतज्ञ होऊंगा-उसी सच्चे अर्थों में कृतज्ञ। और आपके इस मुक्तिदायक अनुभव में साझे का निजी संतोष तो मुझे मिलेगा ही। पत्र पाते ही आप लिखने बैठ जायंेः मैं वह सब पढ़ने को अधीर हो रहा हूं। आकार शैली आदि की कोई कैद नहीं हैं, जो आपको स्वाभाविक जान पड़े वही करें। आपका, रघुवीर सहाय
वे मानवीय गरिमा की बात सिर्फ बतियाते ही नहीं थे, उसका हर-पल ख्याल भी रखते थे। मानवीय अस्मिता और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता का नारा लगाये बगैर उन्होंने ‘दिनमान’ के जरिये मेरे-जैसे जाने-कितने दिग्भ्रमितों में पत्रकारिता की बुनियादी वसूलों को रोपने का बड़ा काम किया, उसे मुझ जैसे नाकारा पत्रकारों के जरिये शिनाख्त करना संभव नहीं है। लेकिन उनकी दृष्टि का अनुकरण करते हुए मैंने न केवल पत्रकारिता अपितु समाज और परिवार को बड़े व्यापक क्षितिज से जोड़कर समझने की जो दृष्टि उनसे पायी, उसने मुझे कभी अकेलेपन का एहसास होने ही नहीं दिया। यह आकस्मिक नहीं था कि वे एक आत्मीय ऊष्मा....अपनी अनुपस्थिति में भी वे आत्मीयों के बीच बिखेरे रहते थे। उनकी यह मोहक बात सिर्फ जिंदगी के सरोकारों में ही नहीं, लेखन में भी हर कहीं पाई जाती है। एक बार की बात है। वे बनारस में दंगा कवर करने आये। मैं साथ-साथ प्रभावित इलाकों में गया। उन्होंने मुझे कहा कि आपको ही लिखना है। वे फोटो उतारते रहे और बीच-बीच में कुछ नोट भी करते रहे थे। रपट मैंने ही लिखी थी, लेकिन जब पढ़ा तो मैंने पाया कि, ‘मारते वहीं जिलाते वहीं’ शीर्षक के अलावा मेरे लिखे हुए को बिना छेड़े उन्होंने ऐसी पंक्तियां जोड़ी थीं, जिसके बगैर रपट तथ्यात्मक तो होती, किंतु लोगों के भीतर की कोई हलचल पाठकों तक नहीं पहुंच पाती। मैंने अपनी ही लिखी हुई रपट को पढ़ते हुए पत्रकारिता का वह पाठ पढ़ा था, जिसे सहायजी के स्पर्श के बिना शायद ही कभी पढ़ पाता। वे चिंगारी को आग में बदल देते थे। आदमी भाषा से मथा जा सकता है और नया चोला पा सकता है-सहायजी पल-पल अपनी कलम की नोंक से सिखलाते रहे थे, बिना किसी दंभ के कि वह कुछ सिखला रहे हैं।
बनारस उन्हें प्रिय था। वहां की गलियों में भांग छानकर घूमते हुए वे हमारे मित्र सरीखे हो जाते थे। जिज्ञासु तो वे बच्चे की तरह थे। उनके सवालों को सुनकर कभी-कभी मुझे अपना बचपन याद आ जाता था। यह भी कि आदमी को हमेशा चीजों के तह तक की बात जाननी चाहिए। उसे जीवनपर्यंत सीखने की ललक अपने भीतर जिलाये रखनी चाहिए। बनारस की गलियों-सड़कों और घाटों पर विजया की ठंडाई छानकर उनके साथ बीती कई शाम आंखों के आगे तिर आई हैं। उनके साथ बतकही का रस मिलता था। मूंगफली से, आम की भिन्न-भिन्न जातियों तक, लोहिया से कमलापति तक, शहद से मलाई तक, जीवन से मृत्यु तक की तासीर के बारे में बातें होती थीं। एक बार बनारस के मशहूर शवदाह स्थल मणिकर्णिका घाट पर देर रात गये बातें होती रही थीं। उस घाट से जुड़ी किंवदंतियों के बारे में शिशु-सुलभ जिज्ञासा से पूछते रहे थे। यह भी कि बरसात में जब गंगा का पानी बढ़ जाता हैं, तो कौन सी दिक्कतों का सामना दाह संस्कार वालों को करना पड़ता है, नगरपालिका की कैसी भूमिका होती है आदि-आदि। वे सिर्फ बतकही करके ही नहीं रह जाते थे। उन्हें टहलते हुए कही गयी बातें भी खूब याद रहती थीं। एक दिन अचानक पत्र मिला, ‘एक और महत्वपूर्ण बात। शीघ्र ही मैं अनेक नगरों में हिंदू-रीति के अनुसार मृतक के दाह-संस्कार के लिए उपलब्ध सुविधाओं पर एक बड़ा वृतांत प्रकाशित करना चाहता हूं। मणिकर्णिका घाट के बारे में आपसे कई बार बात हुई हैं, किंतु अभी तक उस पर कोई सामग्री नहीं मिली।’ दरअसल पत्रकारिता उनके लिए आंदोलन की तरह रही है। वे एक कार्यकर्ता की ही तरह पत्रकारिता के चैमुखी मोर्चे पर न केवल स्वयं सक्रिय रहे, अपितु बहुतेरों को उन्होंने सक्रिय बनाये भी रखा।
16 अप्रैल, 1974

प्रिय सुधेंदु जी,
नेपाली मंदिर संबंधी टिप्पणी और बिजुल में नदी पार करते लोगों के चित्र की पीठ पर लिखी आप की टिप्पणी मिली। आप अगोरी में शिविर कब लगाना चाहते हैं? मेरे लिए आना संभव हो सकता है, पर तारीख निश्चित कर के आप पहले बतायें।
3 फरवरी, 76

प्रिय सुधेंदु जी,
बनारस विश्वविद्यालय में डा. माधुरी बेन शाह ने स्त्रियों की शिक्षा आदि पर दो दिन के सम्मेलन में एक भाषण दिया था जिसमें उन्होंने स्त्री को कपड़ा मिल  में रात की पारी न करने दिये जाने का विरोध किया था। उस भाषण की एक प्रति मुझे चाहिए। क्या खोज कर भेज सकेंगे?
बनारस में ही खानों में सुरक्षा के संबंध में जो संगोष्ठी हुई थी, उस पर निबंध आदि जमा करके भेजने का आपने वायदा किया था। मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूं। गोदई महाराज से आप की भेंट की भी प्रतीक्षा है।
एक और महत्वपूर्ण बात मणिकर्णिका घाट के बारे में आप से कई बार बात हुई हैं किंतु अभी तक उस पर कोई सामग्री नहीं मिली।
आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी। मैं 7 तारीख से 4-5 दिन के लिए शायद मध्यप्रदेश में रहूंगा।
आपका, रघुवीर सहाय
6.7.77
प्रिय सुधेंदु जी,
आप का पत्र पाकर आनंद हुआ। वे जेल से मुक्ति और विवाह का बंधन दोनों ही आपने अनुभव कर लिया है, आप स्थितिप्रज्ञ कहें जा सकते हैं।
मैं आप की यायावरी की प्रतिभा से कितना मुग्ध हूं, कह नहीं सकता। आप ही जैसे व्यक्तियों के माध्यम से देश का हाल देश को मिलने की उम्मीद बनती है। जौरा में 14 से 26 तक के बागी शिविर के बारे में आप बहुत संक्षेप में चुने हुए मुद्दों को उठाये तो हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। लौटते हुए आइयेगा तो दिल्ली में रूक सकंे और मिल सकंे तो कृतार्थ होऊंगा। आप दोनों को सस्नेह, रघुवीर सहाय


स्मृति दर-स्मृति....कितनी बातें! कितने ही पहलू! एक बार बनारस में डा.ब.व. कारंत ने नाट्य प्रशिक्षण शिविर (1972) लगाया। उस अवसर पर सहायजी ने अपनी चुनी हुई अठारह कविताओं का साभिनय पाठा किया था। जिनमें कुछ गीत और शेष नयी कविताओं के नमूने थे। यह एक नया प्रयोग था, जिसमें कविता को भाषा और ध्वनि के खंडों में, भावानुकूल उतार चढ़ाव, अंतराल और संदर्भ-बिंदुओं पर आघात देते हुए कवि के व्यक्तिव और कविता के व्यंग्य को नाटकीय स्तर पर उभारने में सहायजी ने कविता और मंच दोनों को एक नया आभास दिलाया था। इसमें रेखांकित करने वाली एक खूबी यह थी कि आकृति विरूपण और कायिक अभिनय वहां प्रदर्शन न होकर इतने सहज थे कि कहीं भी कलाकार वास्तविक व्यक्ति  से इतर नहीं लगा था। उनके इस काव्याभिनय के पीछे संगीत की गहरी समझदारी थी।

उनके समूचे जीवन और व्यवहार में एक अद्भुत लयकारी थी। वे परिवर्तन के निमित्त संघर्षशील युवजनों के लिए हमेशा एक साथी की तरह रहे। उन्होंने जीवन को समग्रता में जिया और यही वे बतलाते भी रहे थे। उनसे जुड़ी ढेरों स्मृतियों के बीच उनका यह एक वाक्य मुझे हमेशा बल देता रहा है-संघर्ष और जेल, पत्रकारिता और परिवार, प्रेम और विवाह, और समय से जूझते हुए जब कभी निराशा ने घेरा है, उनसे दूर रहकर भी उनकी हथेली की ऊष्मा को मैंने अपने कंधों पर बराबर महसूसा है, अब भी और आज उनकी अनुपस्थिति में भी, जबकि मन अवसाद से भरा हुआ है। देश और दुनिया की जटिल से जटिल होती स्थितियों के बीच भी मनुष्य की रचनात्मकता पर अटल विश्वास रखने वाले सहायजी की आवाज कानों में गूंज रही है, ‘सुधेंदुजी, काम की सुगंध फैलती है, निराश न हों’। और अब, इस वाक्य की ऊष्मा ही मेरी थाती हैं।