Tuesday, April 5, 2011

अज्ञेय-स्मरण


मृण्मय से चिन्मय तक का सफर

अज्ञेय को स्मरण करते ही ‘लट्टू’ की तरह उनसे जुड़ी स्मृतियां दिमाग में थिरकने लगी हैं। यह महज संयोग ही था कि जब यौवन की बारादरी में कदम रखा ही था तभी उन्हीं दिनों काशी स्थित नेपाली पुस्तकालय, दूधविनायक (नेपाली क्रांतिकारियों का मुख्य केन्द्र) के प्रभारी श्रेष्ठजी ने ‘शेखरः एक जीवनी’ साग्रह पढ़ने को दी थी। उनदिनों घरेलू माहौल के कारण बंगला साहित्य ज्यादा पढ़ता था। हिन्दी भक्ति साहित्य (दण्डी स्वामियों की संगत में) से इतर अज्ञेय, राहुल, और यशपाल की रचनाओं से ही मैंने हिन्दी साहित्य की बारहखड़ी प्रारंभ की थी। ‘शेखर’, ‘झूठा-सच’ पढ़ने के साथ ही अपने बंगलाभांषी हिन्दी अध्यापक सुनील मुखोपाध्याय से पता चला था कि अज्ञेय क्रांतिकारी भी रहे हैं। मेरे लिए उनदिनों इतना भर काफी था कि फंला नामधारी दुनिया बदलने का हौसला रखता रहा है। डाॅ. राममनोहर लोहिया मेरे तत्कालीन ‘नायक’ थे। गांधी, सुभाष, सावरकर, भगतसिंह लगायत तमाम-तमाम देशी-विदेशी क्रांतिकारियों से रिश्ता महसूस करता था।
दरअसल, हिन्दी के औघड़ साहित्यकार राजकमल चौधरी  के अभिन्न मित्र छायाकार एस. अतिबल के संगत में मैं साहित्य की भीतरी संसार की ‘टुच्चई’ से रूबरू हो रहा था। जहां अकेले अज्ञेय एक तरफ और बाकी सारे साहित्य के ‘कौरवी’ जमात की अफवाहें थीं, कुछ सच्ची, अधिकांश झूठी होती थीं। उस दौर में कवि अज्ञेय को लेकर कई-कई परतों वाले किस्से सुनता रहता था। वे बहुत कम बोलते हैं, रसिक हैं, डेढ़ दर्जन भाषाएं जानते हैं, अच्छे छायाकार भी है, चित्रकार हैं, एक नंबर के साहित्यिक अखाड़िया हैं, सी.आई.ए. के खांटी एजेंटों में एक हैं, नक्सलवादियों को अन्दर ही-अंदर बम बनाने का प्रशिक्षण देते हैं। अज्ञेय के बहुआयामी व्यक्तित्व के बारे में जितने किस्से सुनता उतनी ही उत्कंठा बढ़ती जाती थी। यह उस दौर की बात है जब तरुणाई की ‘रौ’ में बेखौफ इतराता फिर रहा था। देश में आमूलचूल परिवर्तन करने की कार्यवाही का ‘ब्लू प्रिंट’ मन में संजोए स्वप्नलोक में खोया रहता था। डाॅ. लोहिया की सप्तक्रांति के रंग में पूरी तरह सराबोर था।
उन्हीं दिनों संगत का असर था कि पत्रकारिता और साहित्य के हलके में भी कभी-कभी कविता, कहानी या रपट लिखकर घुसपैठ करने लगा था। तभी हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में ताजी हवा का झोंका आया, अज्ञेय ‘दिनमान’ लेकर प्रकट हुए थे। समाज को सही तरीके से समझने की तमीज हमें ‘सच्चिदानंद वात्स्यायन’ द्वारा संपादित ‘दिनमान’ से ही मिलती थी। इतना ही नहीं, समाज के साथ अनेकों-अनेक संदर्भों के रिश्तों की परिभाषा भी ‘दिनमान’ ने ही तब दी थी। यह कहना सच होगा कि उस दौर में मेरे जैसे अनेकों-अनेक परिवर्तन के लिए आकुल युवजनों को दिनमान से राजनीति की ‘लाइन’ मिलती रही। हम समाजवादी युवजनों का तो ‘दिनमान’ मानो मुखपत्र था। मेरे लिए तो बड़ी बात यह भी थी कि डाॅ. लोहिया को ‘दिनमान’ में खूब जगह मिलती थी। पूंजीपति के पैसे से निकलने वाले पत्र को परिवर्तन की राजनीति का मुखपत्र बनाने का बड़ा काम अज्ञेय जैसी दृष्टि वाला क्रांतिकारी ही कर सकता था, जिसके लिए एक समूची पीढ़ी उनकी विशेष ऋणी है। किसी युवा पत्रकार को यदि हिन्दी पत्रकारिता सीखनी हो तो आज भी वात्स्यायनजी द्वारा संपादित दिनमान का एक एक अंक पाठ्यपुस्तक की तरह संदर्भ का काम करेगा।
‘अरे यायावर रहेगा याद?’ के रचयिता अज्ञेय वहां भी खूब याद आए थे, जब यायावरी करते हुए बुद्व की निर्वाण स्थली कुशीनगर (कसया) पहुंचा था। मृण्मय कुशीनगर के खुदाई-शिविर में पुरातत्ववेत्ता डाॅ. हीरानंद शास्त्री की चौथी  संतान के रूप में ‘सच्चा’ का जन्म हुआ था, संभवतः इसीलिए सच्चिदानंद आजीवन  चिन्मय तलाशते रहे थे। यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि सच्चिदानंद वात्स्यायन का बचपन का नाम ‘सच्चा’, ललित निबंधकार का नाम कुट्टिचातन, रचनाकार नाम अज्ञेय (जैनेन्द्र-प्रेमचंद का दिया नाम है-अज्ञेय) यह नाम अनिच्छित रूप से वात्स्यायन जी की कहानी ‘अमरवल्लरी’ से जुड़ा था।
काशी स्थित बाला घाट की सीढ़ियों के मुहाने पर कैमरा लटकाए अज्ञेयजी को पहली बार सप्रयास देखा था। उन दिनों अज्ञेय जब भी काशी आते कला पारखी भारत कला भवन के संस्थापक रायकृष्णदास  के यहां ही उनका ठहरना होता। जहंा संभवतः 1937 में पुराविदों के काशी सम्मेलन में अपने पिता के साथ वे राय साहब से पहली बार मिले थे। अपनी किताब ‘स्मृति-लेखा’ में गहरे संस्कारों वाले राय साहब के बारे लिखा भी- ‘...यह स्मृति उस जीवन्त और अर्थगर्भ अतीत का प्रतिलेख तैयार करती जाती थी जो भविष्य की लीकें डालता है और उन्हें स्नेह से सींच कर पूरे समाज की अग्रगति के लिए चिकना बनाता है।’ (पृष्ठ 37)
एकांगी ही सही, रिश्ता बहुत पुराना रहा है। इस आत्मीयता भरे रिश्ते को कोई नाम देना जरूरी भी नहीं है। हां, यह जरूर है कि बालाजी मंदिर घाट में प्रथम दर्शन और डाॅ. विद्यानिवास मिश्र के घर पर हुई पहली मुलाकात के वक्त यह सोचा भी न था कि कभी उनके निकट बैठकर ‘दिल्ली में’ उनके हाथ से बनाये हुए गुलाब जामुन के रंग स्वाद का अवसर मिलेगा। अवसर पत्रकार ओम थानवी के साथ-संगत से ही प्राप्त हुआ था। ‘दिव्य-भोजन’ मुझ बनारसी की कमजोरी है, इसके लिए ‘मधुमेह’ को ठेंगा दिखाने में भी नहीं हिचकता हूं। यहां जयपुर में राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति के सौजन्य से, रमेश थानवी के सान्निध्य में एकाधिक बार अज्ञेयजी के साथ भोजन का अवसर मिला। एकबार की बात है कि एम.आई. रोड के एक होटल में चलन के अनुसार रमेशजी पनीर-मलाई वाली सब्जियों का आर्डर दे रहे थे तो वात्स्यायनजी ने टोक कर कहा था, ‘थानवीजी फैन्सी भोजन क्यों मंगवा रहे हैं, साग मंगवाइये’, मांसाहारी अज्ञेयजी का आग्रह हमें रुचा था।
यह और बात है कि ‘वत्सल निधि’ और ‘राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति’ के संयुक्त तत्वावधान में ‘परिवेश और साहित्य’ पर हुए ग्यारह दिवसीय लेखक शिविर में भी उनका सामिष भोजन के प्रति कोई आग्रह नहीं दिखा था। इतने निकट रहने-देखने-सुनने के फलस्वरूप उनके बारे में गढ़े किस्सों को तार-तार होता पाया था। माउंट आबू शिविर से कुछ ही वर्ष पहले मैं राजस्थानवासी बना था। ‘नक्की-झील’ पर भी मुझे रेगिस्तान की छवि ही दिमाग में तारी रही थी। अज्ञेय जी को निहारता और सोचता था आखिर कितने रंग हैं, कितनी छटा है। यह भी याद आया था कि जब 1967 में बिहार सूखे से बेहाल पड़ा था। तब वे स्वयं युवा पत्रकारों की टीम के साथ ‘सूखा’ कवर करने बिहार के गांव में गए थे। आजाद भारत की हिन्दी-भाषी गरीब जनता को पहली बार तभी पता चला था कि सूखा और अकाल दैवी प्रकोप नहीं सरकारी नालायकी का ही परिणाम होता है। अज्ञेय ने पत्रकारिता के जरिये समाज को उसकी स्वतंत्र हैसियत लौटाने की मुहिम छेड़कर एक नयी दिशा दी थी। हिन्दुस्तान की गरीब शोषित जनता के पैरोकारों को पहली बार अपनी भाषा और मुहावरों से जुड़ी पत्रिका मिली थी, जिसने उसे न केवल एक नया संस्कार दिया, बल्कि उसकी सामाजिक राजनैतिक समझ में भी इजाफा किया था।
मैं भूल नहीं पाया हूं कि ‘सूखा’ शीर्षक से ‘दिनमान’ के मध्यवर्ती पृष्ठों पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कुंवरनारायण और त्रिलोचन शास्त्री की कविता के साथ ही अज्ञेय ने अपनी एक छोटी-सी कविता भी दी थीः 

न जाओ 

अन्न की कमी का रोना रोने 
विधायक के पास न जाओ 
अन्न से 
विधायक सस्ता हैः 
अन्न की वसूली में 
सरकारें भी सुस्त हैं- 
विधायकों की खरीददारी में 
हर दल दिलेर हैं!

हमें ‘सूखे की राजनीति’ को समझने में अज्ञेय की कविता से भी मदद मिली थी। कविता के भीतर छुपे अर्थ के खुलने के बाद जो समझ बनती हैं, वह व्यक्ति को राजनीतिक दृष्टि से संपन्न ही बनाती है। मनुष्य की अस्मिता का एहसास कराने वाली यह छोटी-सी कविता उस दौर में बड़ा अर्थ रखती थी। तब शब्दों का इस कदर अवमूल्यन नहीं हुआ था और न ही राजनीति का अपराधीकरण हुआ था।
सहृदय अज्ञेयजी के राजनीतिक सरोकार को लेकर समय-समय तूफान खड़ा किया जाता रहा, हालांकि इससे अज्ञेय के विराट व्यक्तित्व पर कभी कोई असर नहीं पड़ा। अनर्गल बहस जरूरी खड़ी होती रही है। उनका ‘रेडिकल मानववादियों’ के प्रणेता एम.एन. राय से सीधा संपर्क रहा। पंड़ित नेहरू से लगाकर जयप्रकाश, लोहिया से संपर्क तो जगजाहिर है। उन्होंने जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर ‘एवरीमैन्स वीकली’ का संपादन भी किया था। यों स्वभाव से विनम्रता की मूर्ति अज्ञेय गांधी के निकट थे। कभी उन्होंने भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद के साथ आजादी की लड़ाई लड़ी थी। पर धीरे-धीरे वे गांधीजी के रास्ते की ओर आए। गांधीवादियों की पत्रिका ‘गांधी मार्ग’ के वे मार्गदर्शकों में रहे। समाजवादियों से उनके रिश्ते भी ठोस रहे।
लेकिन, इसके बावजूद, किसी विचारधारा-विशेष के वे अनुगामी कभी नहीं रहे। उनकी तरह का स्वाधीन चेता व्यक्ति, जो प्राणीमात्र की आजादी का पक्षधर रहा हो, और जो उस दिशा में प्रयत्न भी करता रहा हो अनुगमन नहीं ही कर सकता था। उन्हें पूंजीवादी खेमे का माना जाता रहा, बिना किसी आधार की पहचान किये हुए। लेकिन उन्होंने स्वयं ही कहा था कि, ‘‘मैं पूंजीवादी खेमे में कभी नहीं रहा, लेकिन जो लोग कहते हैं, उनको तकलीफ इस बात की है कि उनके खेमे में नहीं हूं और क्यों नहीं हूं। मैं तो समझता हूं कि लेखक किसी खेमे में नहीं रहता, क्योंकि उसका यह अधिकार बना रहना चाहिए कि वह सभी की अच्छी बातों की तारीफ भी कर सके तो सभी की गलत बातों की या संकीर्ण चिंतन का दोष भी देखे और दिखा सके।’’
अज्ञेय लोकतांत्रिक पद्धति को बेहतर मानते ही नहीं थे, अपनी जीवनचर्या में प्रयोग भी करते रहे। मुझे वत्सल निधि और राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति के संयुक्त प्रयास से आयोजित माऊण्ट आबू के लेखक-शिविर की याद आती है, जहां नये-पुराने लेखकों को लोकतांत्रिक पद्धति से ही अज्ञेय साथ लेकर चले थे। उन अविस्मरणीय ग्यारह दिनों की स्मृतियों में कई दिनों की स्मृतियों में कोई दिन ऐसा नहीं था कि जब उन्होंने अपने विराट व्यक्तित्व से आतंकित किया हो। उनके व्यक्तित्व की ऊंचाई डराती नहीं, पास और पास आने को लुभाती रही है।
                                                          छायाकार: ओम थानवी 

8 comments:

  1. बहुत सधा हुआ और आत्मीय संस्मरण! बधाई!

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  2. ब्लॉग -लेखन में सातत्य बनाए रखिएगा । हार्दिक बधाई ।

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  3. पटेलजी, फोटो का स्रोत अब मैं ही बताऊँ?!

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  4. ओमजी माफी मांगता हूं माउंट आबू का फोटो तो आप ही ने लिया था। इतना ही नहीं अब तक अच्छा-बुरा (बचपन के अलावा) सारे रेखांकित करने वाले फोटो आप ही ने लिए हैं, यहां तक कि फेसबुक का फोटो भी आप ही का लिया हुआ है। सनद रहे इसलिए दर्ज कर रहा हूं।

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  5. वैसे सिर्फ़ याद दिलाने के लिए कहना चाहता हूं कि माउन्ट आबू में मैं भी था और युनाइटेड न्यूज़ ओफ़ इन्डिया के लिए मैं ने ही उस लेखन शिबिर की रिपोर्ट लिखी थी.

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  6. जी नहीं, यह फोटो मैंने नहीं रमाकांत ने लिया था. मैं बेहतर फोटो लेता हूँ. मैंने आपका और रमाकांत का अज्ञेय जी के साथ ज़मीन पर बैठकर दाल बाटी चूरमा छकते हुए फोटो ज़रूर लिया था. और अज्ञेय जी के साथ आप दोनों की चहलकदमी जा भी. बहरहाल इस पर भी आप भले नाम मेरा चलने दें, मुझे एतराज़ नहीं है. खराब फोटो (गो कि अब आपके लिए बेहद कीमती) की बदनामी में हम शरीफ रमाकांत को क्यों लपेटें? मित्रों के दोष मैं हमेशा ओढ़ता रहा हूँ, आपको पता है. यह बदनामी भी मैं उठा रखूंगा. लव के लिए कुछ भी करेगा!

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  7. मुझे लगता है मेरा ही खींचा हुआ है यह भी! इस फोटो में साथ में रमाकांत भी थे जिन्हें मैंने आपको फोटो भेजते वक़्त फ्रेम से बाहर भेज दिया शायद.

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  8. thav kuthav ji aapka nam kya hai jaldi batayenge ky a

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